महात्मा ज्योतिबा फुले और इस्लाम: समानता, न्याय और मानवता का अद्भुत मिलन
कभी-कभी मैं सोचता हूँ, कुछ लोग दुनिया में सिर्फ जन्मने नहीं आते, वो आते हैं जगाने के लिए। जैसे रात की नींद तोड़ने वाली कोई तेज घंटी। और मेरे लिए महात्मा ज्योतिबा फुले उन्हीं में से एक हैं। एक ऐसा इंसान जिसने समाज को आईना दिखाया, और वो भी बिना डर के।
लेकिन आज मैं उस फुले की बात एक और रोशनी में करना चाहता हूँ,
इस्लाम की रोशनी में।
थोड़ा अलग नहीं? हाँ है… पर शायद यही इसे खूबसूरत बनाता है।
महात्मा ज्योतिबा फुले का सवाल, "जात क्यों, भेद क्यों?"
महात्मा ज्योतिबा फुले का जन्म 1827 में हुआ। वो वक्त ऐसा था जब इंसान की कीमत उसकी जात से तय होती थी।
ऊँची जात मतलब मंदिर, शिक्षा, सम्मान।
निचली जात मतलब अपमान, प्रतिबंध, और दमन।
मैं अक्सर कल्पना करता हूँ, बचपन का ज्योतिबा बाज़ार में किसी को पानी-मांगते देखता होगा, और सामने से जवाब,
अछूत हो, पास मत आ!
सोचिए, एक बच्चा ये सब देखकर बड़ा हुआ। दिल में चुभन जम गई होगी। वो चुभन आगे चलकर क्रांति बनी।
और इसी मोड़ पर इस्लाम याद आता है…
इस्लाम कहता है,
सभी मनुष्य समान हैं। गोरे पर काले की, काले पर गोरे की कोई श्रेष्ठता नहीं।
ख़ुत्बा-ए-विदा
मैंने जब पहली बार यह पंक्ति सुनी थी, दिल में बिजली सी दौड़ गई। ये शब्द सिर्फ नियम नहीं हैं, यह इंसानियत का एलान है। और अनमने से ही मन कहता है, यह फुले की सोच से कितना मिलता-जुलता है!
ज्योतिबा ने भी यही कहा था,
मनुष्य ही मनुष्य का भेद करता है, वरना प्रकृति सबको एक ही साँस देती है।
दो अलग काल, दो अलग संदर्भ, पर आवाज़ एक ही।
सावित्रीबाई - वो अध्याय जिसे भूलना नामुमकिन
महात्मा ज्योतिबा फुले की कहानी सावित्रीबाई के बिना अधूरी है। एक साधारण लड़की जो शिक्षा से दूर थी। आज भारत के पहले विद्यालय की अध्यापिका।
लोगों ने उन पर गोबर फेंका, पत्थर मारे, ताने दिए। पर वो रुकीं नहीं। कंधे पर किताब, आँखों में हिम्मत, और हाथ में चॉक लेकर फिर स्कूल पहुँचीं।
आपको पता है, इस्लाम में पहला शब्द क्या उतरा?
"इक़रा" — पढ़ो।
और पहली विद्वान स्त्री कौन?
हज़रत आयशा (रज़ि)।
कितना खूबसूरत मेल है, एक ओर सावित्रीबाई शिक्षा का दीपक जलाती है, दूसरी ओर इस्लाम ज्ञान को सबसे पहली अज़मत देता है। शायद दोनों कह रहे हों,
अज्ञान ही बंदिश है। और शिक्षा आज़ादी।
गरीब, किसान, बहुजन - फुले की नज़र हमेशा सबसे निचले पायदान पर थी
महात्मा ज्योतिबा फुले सिर्फ सुधारक नहीं थे, वो सुनते थे। उनका दिल समाज के उस शोर में भी कमज़ोर आवाज़ पहचान लेता था।
एक किसान जिसका अनाज साहूकार ले गया,
एक मज़दूर जिसका मेहनताना दबा लिया गया,
एक विधवा जिसके आँसू भी पाप कहलाए,
फुले इसी दर्द को अपनी लड़ाई का ईंधन बनाते थे।
इस्लाम कहता है,
मज़दूर की मज़दूरी उसका पसीना सूखने से पहले अदा करो।
हदीस
ये नियम महात्मा ज्योतिबा फुले के सिद्धांत जैसा ही लगता है, हक़ दो, उपकार नहीं।
क्योंकि इंसान दान पर नहीं, इज़्ज़त पर जीता है।
धार्मिक बनावट और पाखंड - फुले ने जो देखा, इस्लाम ने जो सिखाया
महात्मा ज्योतिबा फुले ने धर्म को नहीं, धार्मिक पाखंड को चुनौती दी। मंदिरों में सोना चढ़ रहा था, बाहर गरीब भूखा मर रहा था।उन्होंने सवाल उठाया,
भगवान को सोने का सिंहासन क्यों चाहिए? भूखे को रोटी चाहिए।
और इस्लाम भी यही दिशा दिखाता है,
जिसके पड़ोसी भूखे सोए, वह हम में से नहीं।
हदीस
धर्म का मक़सद प्रवचन नहीं, परिवर्तन है।
और फुले और इस्लाम दोनों ये बात ज़ोर से, साफ कहते हैं। शायद इसलिए उनका मिलन इतना स्वाभाविक लगता है।
स्त्री सम्मान - दोनों विचारधाराओं की रीढ़
उस समय स्त्री का जन्म मानो अपराध था। शिक्षा नहीं, अधिकार नहीं, आवाज़ नहीं। महात्मा ज्योतिबा फुले ने विधवा विवाह कराया, बाल-विवाह का विरोध किया, और कहा,
नारी को बराबरी मिले, तभी समाज खड़ा रहेगा।
इस्लाम कहता है,
तुममें बेहतरीन वो है जो अपनी स्त्रियों से सबसे अच्छा व्यवहार करे।
कुरआन में स्त्री को विरासत का हक़, शिक्षा का हक़, सम्मान का हक़ मिलता है। क्या यह वही नहीं जिसे फुले जीवन भर बोलते रहे?
दोनों जैसे एक ही दीया जलाते हैं,
एक पुणे में, एक अरब में,
पर रोशनी इंसानियत की ही है।
सत्यशोधक समाज और कुरआनी सोच - खोजो, सोचो, समझो
महात्मा ज्योतिबा फुले ने सत्यशोधक समाज बनाया। नाम ही बताता है, सत्य की खोज। सवाल करने की आज़ादी। समझने का हक़।
कुरआन भी पुकारता है,
सोचो, विचार करो, समझो।
धर्म आँख बंद करने को नहीं कहता, बल्कि आँख खोलने को कहता है।
कभी-कभी मैं सोचता हूँ..... यदि ज्योतिबा कुरआन पढ़ते, शायद मुस्कुराकर कहते,
यह तो वही बातें हैं, जिनके लिए मैं लड़ा हूँ।
अगर दोनों एक कमरे में बैठते तो? (थोड़ी कल्पना कर लें)
एक तरफ ज्योतिबा, सादे कपड़े, विचारों में आग, दूसरी तरफ इस्लाम की किताब, इंसानियत का संविधान।
ज्योतिबा बोलते, "जात क्यों?"
इस्लाम जवाब देता, "सब बराबर हैं।"
ज्योतिबा कहते,"शिक्षा सबकी।"
इस्लाम कहता, "ज्ञान फर्ज़ है।"
ज्योतिबा कहते, "स्त्री और दलित को इंसान मानो।"
इस्लाम कहता, "उनका हक़ अदा करो।"
कितना अजीब और सुंदर दृश्य है ना?
आख़िर में (शायद ये अंत नहीं, शुरुआत हो)
मैं ये नहीं कहता कि महात्मा ज्योतिबा फुले मुसलमान होते, या इस्लाम फुले था। पर मैं ये ज़रूर कहता हूँ,
अगर दोनों हाथ मिलाते, तो मानवता जीतती।
उनके विचार हमें आज भी आईना दिखाते हैं,
क्या हम सच में समानता चाहते हैं,
या सिर्फ भाषण?
क़लम रखता हूँ, बस इतना सोचते हुए,
महात्मा ज्योतिबा फुले ने जगाया था,
इस्लाम दिशा दिखाता है।
अब कदम हमारा है।
आपकी समझ को गहरा करने के लिए सुझाई गई पुस्तकें
यहाँ कुछ प्रामाणिक और प्रेरक पुस्तकें दी गई हैं जिन्हें आप मुफ़्त में पढ़ सकते हैं (पीडीएफ़ प्रारूप में):
पैगम्बर मुहम्मद स. और भारतीय धर्मग्रंथ डाऊनलोड pdf
ईश्दूत की धारणा विभिन्न धर्मोमे डाऊनलोड pdf
जगत-गुरु डाऊनलोड pdf





Post a Comment